रणजीत सिंह : जिन्होंने भारत के गली-कूचों में खेले जाने वाले क्रिकेट को जुनून में बदलने की शुरुआत की

नई दिल्ली, 10 सितंबर (आईएएनएस)। भारत के गली कूचों में खेले जाने वाले क्रिकेट को एक एहसास और धर्म में बदलने की शुरुआत कहां से हुई होगी? जेहन में सुनील गावस्कर, सचिन तेंदुलकर, कपिल देव, विराट कोहली जैसे दिग्गजों का नाम आता है। इन खिलाड़ियों को देखकर युवा पीढ़ी को प्रेरणा मिलती रही है। लेकिन इन खिलाड़ियों ने इस खेल की शुरुआत नहीं की थी। सब जानते हैं अंग्रेजों ने क्रिकेट की शुरुआत की थी लेकिन ‘भारतीय क्रिकेट का पिता’ कौन था, जिसके खेलने के निराले अंदाज पर गोरे भी फिदा थे। वह खिलाड़ी जिसने इस खेल में गोरे रंग का तिलिस्म तोड़कर अपनी पहचान बनाई और भारत में हजारों लोगों को क्रिकेट खेलने की प्रेरणा दी। यह थे रणजीत सिंह…..कुमार रणजीत सिंह जिनके ऊपर रणजी ट्रॉफी का नाम पड़ा था।

अगर आप भारतीय क्रिकेट की शुरुआत पर नजर डालते हैं तो उस वक्त यह खेल महाराज, राजकुमार, नवाबों में बड़ा मशहूर था। क्रिकेट की अभिजात्य प्रकृति तब ऐसी ही थी। रणजीत सिंह उस जमाने के बेस्ट क्रिकेटर माने जाते थे। 10 सितंबर, 1872 को उनका जन्म भले ही एक किसान पिता के यहां हुआ लेकिन उनका परिवार नवानगर के राजसी शासक विभा सिंह से संबंधित था। एक ऐसी विरासत, रणजीत सिंह जिसके उत्तराधिकारी 1878 में बन गए थे। वह आगे चलकर अपनी रियासत के राजा भी बने। लेकिन इससे पहले वह एक ऐसे क्रिकेटर थे जिसकी कला, उपलब्धि और शख्सियत एक राजा की छवि को ढक देती है।

क्रिकेट की शुरुआत उनके बचपन में हो चुकी थी जिसने रफ्तार पकड़ी इंग्लैंड में। 1888 में 16 साल की उम्र में उनका दाखिला कैम्ब्रिज विश्वविद्यालय में कर दिया गया था, जहां से उनकी जिंदगी एक नया मोड़ लेने वाली थी। यहां अपनी पढ़ाई के दौरान उन्होंने लोकल क्रिकेट मैच देखे। इन मैचों के प्रति लोगों की भीड़ के उत्साह ने उनके मन में क्रिकेट के प्रति अलग ही रोमांच पैदा कर किया था।

कैम्ब्रिज यूनिवर्सिटी टीम के साथ शुरू हुआ उनका क्रिकेट सफर, ससेक्स और लंदन काउंटी के साथ खेलने में गुजरा और फिर 1896 में उनको इंग्लैंड क्रिकेट टीम में चुन लिया गया। तब ऑस्ट्रेलिया की टीम एशेज टेस्ट मैच खेलने के लिए इंग्लैंड में आई थी। लेकिन यह सफर इतना आसान नहीं था। क्रिकेट में तब गोरों का आधिपत्य था और सांवले रंग के रणजीत सिंह को अपने रंग के कारण कई बार चुनौतियों का सामना करना पड़ा। एंथनी बेटमैन की पुस्तक ‘क्रिकेट, लिटरेचर एंड कल्चर: सिंबलाइजिंग द नेशन, डिस्टैबिलाइजिंग एम्पायर’ में इस बात का जिक्र है कैसे टीम में चुने जाने के बावजूद रणजीत सिंह को रंगभेद के चलते पहला टेस्ट मैच खेलने का मौका नहीं मिला था।

तब अश्वेत खिलाड़ी का इंग्लैंड टीम में खेलना मुश्किल ही नहीं, लगभग नामुमकिन था। लेकिन रणजीत सिंह ऐसे खिलाड़ी नहीं थे जिनको नजरअंदाज करना आसान था। तब तक वह अपना जलवा बिखेर चुके थे। काउंटी में उनके नाम कई शानदार पारियां थी। उन्हें आखिरकार ओल्ड ट्रैफर्ड में खेले गए दूसरे टेस्ट मैच में जगह मिली। तीसरे नंबर पर बैटिंग करने आए रणजीत सिंह ने पहली पारी में अर्धशतक और दूसरी में शतक लगाते हुए अपनी छाप छोड़ दी। वह इंग्लैंड के लिए टेस्ट क्रिकेट खेलने वाले पहले अश्वेत खिलाड़ी बन चुके थे। जिन्होंने गोरों का खेल न सिर्फ खेला बल्कि अहम योगदान भी दिया।

इसके बाद दर्शकों के बीच रणजीत सिंह एक बड़ा नाम बन गए थे। लोग उनके नाम पर मैदान में जमा हो जाते थे। तब क्रिकेट ऑफ साइड का खेल होता है। बल्लेबाज बड़ी नजाकत से ऑफ साइड में खेलते थे। ऐसे समय में रणजीत सिंह ने अपने लेग शॉट्स से दर्शकों को मुग्ध कर दिया। यह शॉट ‘लेग ग्लांस’ बन गया। 1897 में ‘विजडन क्रिकेटर ऑफ द ईयर’ का पुरस्कार जीतने वाले रणजीत सिंह ने साल 1902 तक इंग्लैंड क्रिकेट टीम के लिए खेला। अपने 15 टेस्ट मैचों के करियर में उन्होंने 44.95 की औसत के साथ 989 रन बनाए। उनका फर्स्ट क्लास करियर भी शानदार रहा जिसमें उन्होंने 307 मैच खेलते हुए 56.37 की औसत के साथ 24,692 रन बनाए। इसमें 72 शतक और 109 अर्धशतक शामिल थे।

हालांकि मिहिर बोस की किताब ‘ए हिस्ट्री ऑफ इंडियन क्रिकेट’ बताती है कि रणजीत सिंह का भारत के भीतर प्रभाव सीमित था। उन्होंने भारत में कोई पेशेवर क्रिकेट नहीं खेला था। एक सवाल यह भी उभरता है, रणजीत सिंह भारत के लिए क्यों नहीं खेले? असल में तब तक भारत की कोई टेस्ट टीम ही नहीं थी। भारत ने साल 1932 में अपना टेस्ट खेला था। क्रिकेट तब पराधीन भारत की प्राथमिकता का हिस्सा नहीं था। फिर भी, एक पेशेवर क्रिकेटर के रूप में रणजीत सिंह की भूमिका ने निश्चित रूप से क्रिकेट के इतिहास पर प्रभाव डाला था।

वह क्रिकेट के ‘ब्लैक प्रिंस’ थे जिसने भारतीय क्रिकेट को राह दिखाई। एक सपना दिखाया कि अगर यह आदमी कर सकता है तो हम भी कर सकते हैं। साल 1933 में रणजीत सिंह ने दुनिया को अलविदा कह दिया था। इसके अगले ही साल भारतीय क्रिकेट कंट्रोल बोर्ड (बीसीसीआई) ने ‘क्रिकेट चैंपियनशिप ऑफ इंडिया’ के नाम से टूर्नामेंट शुरू किया था। जिसे 1935 में रणजीत सिंह के नाम पर रणजी ट्रॉफी कर दिया गया था। रणजी ट्रॉफी…हर साल भारत में आयोजित होने वाला सबसे बड़ा घरेलू टूर्नामेंट जो फर्स्ट क्लास फॉर्मेट में खेला जाता है।

–आईएएनएस

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