पुण्यतिथि विशेष: समाज सुधारक नारायण गुरु ने जगाई जाति विरोधी अलख, तो छोटी सी उम्र में शहादत दे ‘कनकलता’ का नाम हुआ अमर

नई दिल्ली, 19 सितंबर (आईएएनएस)। नारायण गुरु, भारत के महान संत एवं समाज सुधारक थे। उन्होंने ‘एक जाति, एक धर्म, एक ईश्वर’ का नारा गढ़ा और ‘मानवता की एकता’ के महान आदर्श का प्रचार किया। वहीं, भारत की महान स्वतंत्रता संग्राम सेनानी कनकलता बरुआ भारत छोड़ो आंदोलन की सबसे कम उम्र के शहीदों में से एक थीं। देश की इन दो महान शख्सियत की 20 सितंबर को पुण्यतिथि है।

नारायण गुरु ने सामाजिक समानता के लिए लड़ाई लड़ी। जबकि, कनकलता बरुआ ने अंग्रेजों को देश खदेड़ने में भूमिका निभाई। इतिहास में अपना नाम सुनहरे अक्षरों में दर्ज करते हुए दोनों ने अपना जीवन देश हित में न्योछावर कर दिया था। उनका जन्म 20 अगस्त 1856 को केरल के परिवार में हुआ था। एझावा जाति का था परिवार। 20 सितंबर 1928 को 72 वर्ष की उम्र में अंतिम सांस ली।

इस जाति-ग्रस्त समाज में उन्हें बहुत अन्याय का सामना करना पड़ा और यहीं से उन्होंने इसके खिलाफ आवाज बुलंद करने की ठानी। बचपन से लेकर अपने अंतिम सांस तक वो समाज हित की लड़ाई लड़ते रहे। उन्होंने केरल में सुधार आंदोलन का नेतृत्व किया, जातिवाद को खारिज कर दिया और आध्यात्मिक स्वतंत्रता और सामाजिक समानता के नए मूल्यों को बढ़ावा दिया।

खास तौर पर उनका ध्यान पिछड़े वर्ग के लोगों पर था जो अपने मूल अधिकारों से वंचित थे। उनके बारे में बताया जाता है कि एक बार तो उन्होंने एझावाओं (यह केरल की एक जाति है) के अधिकारों के लिए ब्राह्मणों से भी लड़ाई लड़ी। ऐसे कई किस्से हैं जो इस समाजसेवी से जुड़े हुए हैं।

दूसरा नाम कनकलता बरुआ का है। ये नाम अपने आप में महिला सशक्तिकरण का प्रमाण है। भारत छोड़ो आंदोलन में मात्र 15 वर्षीय यह देश की बेटी अन्य बलिदानी वीरांगनाओं से उम्र में छोटी भले ही रही हों, लेकिन त्याग व बलिदान में उनका कद किसी से कम नहीं। जब भारत ने अंग्रेजों के खिलाफ हौसला बुलंद किया तो, कई भारत मां के वीर शहीद हुए। उनमें से ही एक थी कनकलता।

उनका जन्म 22 दिसंबर, 1926 को असम में हुआ था। काफी छोटी उम्र में उन्होंने अपने माता-पिता को खो दिया था। इसके बाद उनका पालन पोषण उनकी नानी करती थी। वह नानी के साथ घर-गृहस्थी के कार्यों में हाथ बंटाती और मन लगाकर पढ़ाई भी करती थी। इतने मुश्किल पारिवारिक परिस्थितियों के बावजूद कनकलता का झुकाव राष्ट्रीय स्वाधीनता आंदोलन की ओर होता गया।

पूरे देश में ‘अंग्रेजों भारत छोड़ो’ का प्रस्ताव पारित हुआ। यह ब्रिटिश सत्ता के विरुद्ध देश के कोने-कोने में फैल गया। असम भी इससे अछूता नहीं रहा। धीरे-धीरे यह आंदोलन आग की तरह फैलता चला गया। इस समय तक कनकलता विवाह के योग्य हो चुकी थी। घरवाले उनकी शादी करने का मन बना चुके थे, लेकिन देश की इस बहादुर बेटी के मन में तो देश प्रेम और अंग्रेजों से भारत मां को मुक्त कराने का इरादा था। वो देश को आजाद करने के लिए संगठन के साथ जुड़ चुकी थी और भारत की आजादी के लिए वह कुछ भी करने को तत्पर थीं।

फिर एक तारीख आई 20 सितंबर, 1942। एक गुप्त सभा में तेजपुर की कचहरी पर तिरंगा झंडा फहराने का निर्णय लिया गया। जो दल यह कार्य करता उसका नाम रखा गया ‘आत्म बलिदानी दल’। यानि इस मिशन पर मृत्यु तय थी। उस आत्म बलिदानी जत्थे में सभी युवक और युवतियां थीं। दोनों हाथों में तिरंगा झंडा थामे कनकलता उस जुलूस का नेतृत्व कर रही थीं।

आत्मविश्वास से लबरेज जत्थे पर जुलूस के नेताओं को संदेह हुआ तो, कनकलता शेरनी के समान गरज उठी। उन्होंने कहा, “हम युवतियों को अबला समझने की भूल मत कीजिए। आत्मा अमर है, नष्ट होता है तो मात्र शरीर। अतः हम किसी से क्यों डरें ?” ‘करेंगे या मरेंगे’ स्वतंत्रता हमारा जन्मसिद्ध अधिकार है।

जब जुलूस अपने मंजिल के करीब पहुंचा तो थाना प्रभारी ने लाख मना किया और गोलियों से सबको छलनी करने की धमकी भी दी, लेकिन इन युवाओं ने हार नहीं मानी और सीना छलनी होने के बाद भी एक दूसरे को तिरंगा थमाते गए और आखिरकार तिरंगा लहरा दिया गया। इस दौरान कनकलता समेत उनके कई साथी शहीद हुए।

–आईएएनएस

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